Sunday, March 30, 2008

यशवंत भइया की पहली हवाई यात्रा ,पहली मुलाकातें,उनकी बातें,वो ढेर सारी यादें उनकी ही जुबानी

दिल्ली-अहमदाबाद-मुंबईः पहली जहाज यात्रा, पहली मुलाकातें, उनकी बातें, वो ढेर सारी यादें...... तीन चार दिनों की यात्रा के बाद आज दोपहर दिल्ली पहुंचा तो भड़ास पर अंदर बाहर ढेर सारा पानी बह चुका था। अंदर माने इनबाक्स में मेल सैकड़ों की संख्या में पड़े थे और बाहर माने भड़ास पर ढेर सारी चीजें लिखी पढ़ी कही जा चुकी थीं। मनीष की संगीता पर पोस्ट और उस पर प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि भड़ास दरअसल अब वाकई एक वैकल्पिक मीडिया का रूप लेता जा रहा है। पारंपरिक मीडिया जिन मुद्दों और बातों को छू तक नहीं सकता, भड़ास जैसे कम्युनिटी ब्लाग पर वे बातें पूरी बेबाकी से आती हैं और लोगों को सोचने व करने पर मजबूर कर देती हैं। लगे रहिए दोस्तों, ऐसे ही छोटी चीजें कभी बड़ी बना करती हैं और ऐसे ही छोटी चीजें कभी बड़े आंदोलन का रूप ले लिया करती हैं। इस दौरान मुश्किलें भी हजार आती हैं लेकिन अगर माद्दा है तो फिर फौलादी सीने तूफानों से टकराया करते हैं। कीप इट अप। मनीष से प्रेरणा लेकर हिंदी के ढेर सारे पट्ठों, शेरों, शूरवीरों, बहादुरों को अपनी चुप्पी तोड़कर हिंदी के विजय के इस दौर में आनलाइन माध्यम में हिंदी में लिखना और अपनी न कही गई बातों को प्रकाशित करना शुरू कर देना चाहिए। भड़ास आपकी मदद के लिए तैयार है। मैंने अपनी पहली हवाई यात्रा उसी रोमांच के साथ की जिस रोमांच के साथ मैंने जीवन में पहली बार साइकिल चलाना सीखा था। जहाज पर बैठने के बाद मेरी गुर्दन मुड़ी ही रही, नीचे धरती को एकटक देखता और निहारता रहा। किस तरह धरती की हर चीज धीरे धीरे छोटी होते होते एकदम से अदृश्य हो गईं और बादलों का संसार धरती पर कब्जा जमाए दिखा। बड़े बड़े शहर यूं नजर आए जैसे चींटी। नदियां, पहाड़, शहर, गांव सब एक ऊंचाई पर आने के बाद एकाकार हो गए और सब कुछ धुआं धुआं बादल बादल धूसर धूसर मिट्टी मिट्टी पानी पानी प्रकाश प्रकाश आसमान आसमान के रूप में दिखने लगा। मुझे जो निजी तौर पर दिक्कतें आईं उसे जरूर बताना चाहूंगा। मैं सीट बेल्ट बांध नहीं पाया। जिधर से बांधने की कोशिश कर रहा था वो उल्टा वाला साइड था। आखिरकार पसीना पोंछते हुए मैंने अपने पड़ोसी से पूछा...भइया, इ बेल्टवा कइसे बांधा जाता है...। उस उन बंधु ने अपने चेहरे पर बिना यह शो कि लगता है तुम देहाती हो, पूरे सम्मान के साथ फटाक से मेरा बेल्ट बांध दिया और इस कदर फिर अपने काम में डूब गये जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। मैं अपेक्षा यह कर रहा था कि वो थोड़ा मुस्करायेंगे, पूछेंगे, समझायेंगे....पर ऐसा कुछ न हुआ। शरीफ आदमी थे। दूसरी दिक्कत ये रही कि सुबह पांच छह गिलास पानी पीने के आदत के चलते जब एयरपोर्ट पर पहुंचा तो सू सू करने की स्थिति बन गई थी लेकिन मैं इसलिए ज्यादा दाएं बाएं नहीं घूमा टहला कि कहीं कोई समझ न ले कि इ ससुरा पहली बार आया लगता है...बोले तो मन ही मन तय कर लिया था कि अबकी एक अच्छे देहाती की तरह चुपचाप सब भांपना देखना है और जहाज पर चढ़कर यात्रा कर के नीचे उतर लेना है। अगली बार दो कदम और आगे बढ़ेंगे और मूतेंगे भी। तो सू सू करने का जो प्रेशर बना था उसे हवाई जहाज में भी दबाए रहा। हालांकि मैं देख रहा था कि भाई लोग किस तरह उठ उठ कर टायलेट की तरफ जा रहे थे पर मैंने रिस्क नहीं लिया। दूसरे, उठने पर नीचे वाला सीन, धरती वाला दृश्य मिस करने का भी रिस्क था, सो अहमदाबाद में एरपोटर् के बाहर एक कोना पकड़कर हलका हुआ। अहमदाबाद में आफिस का काम निपटाने के बाद वरिष्ठ ब्लागर संजय बेंगाणी से मिलने उनके अड्डे पहुंचा। संजय और पंकज जी ने बेहद प्रेम से अपनी टिफिन से खाना खिलाया और देर तक बतियाये। मैं बेहद सहज और अपनापा महसूस करता रहा। लगा, जैसे कि अभी दिल्ली में ही हूं, अपने घर के आसपास। संजय जी ने कुछ बातें इस मुलाकात के बारे में अपने ब्लाग पर कहीं हैं जिसे आप पढ़ व देख सकते हैं। उन्होंने विस्तार से लिखने के बारे में मुझे कहा है पर मैं क्या लिखूं, कुछ सूझ नहीं रहा, सिवाय इसके कि हिंदी ब्लागिंग ने हम अपरिचितों को इतना परिचित करा दिया है कि अब कोई शहर बेगाना, अनजाना नहीं लगता। हर शहर में अपने लोग मिल जाते हैं। और ये अपने लोग ही हैं जो पूरी दुनिया में फैले हैं, बस संजय पंकज की तरह हम सभी अपनी हिंदी और अपने हिंदी वालों पर गर्व करना शुरू कर दें, लिखना शुरू कर दें, देखिए...जमाना अपना है। संजय जी से मिलने के बाद सुभाष भदौरिया जी का फोन नंबर पता कराया। और सफलता भी मिली। कानपुर आईनेक्स्ट के अपने दद्दा अनिल सिन्हा जी ने तुरंत मेरी मदद की और जाने कहां से डा. सुभाष भदौरिया का मोबाइल नंबर मुझे उपलब्ध कराया। डाक्टर साहब को फोन किया तो वे अहमदाबाद से बाहर एक कालेज में परीक्षा कराने में जुटे थे। उन्होंने वादा किया कि परीक्षा खत्म होते ही वे उस बस के पास पहुंच जाएंगे जिससे मुझे मुंबई जाना था। और डाक्टर साहब वादे के मुताबिक पहुंचे भी। डा. सुभाष भदौरिया, जिन्हें मुख्य धारा के ब्लागरों ने जाने क्या क्या कहा है और जाने किस किस तरीके से परेशान किया है, ये किस्सा पुराना है पर मैं तो हमेशा से डाक्टर साहब को एक बेहद सहज और सच्चा इंसान मानता रहा हूं। तभी तो डाक्टर साहब सच बोलकर जमाने भर के गम उठाते रहे हैं। डाक्टर साहब से पल भर की मुलाकात रही पर इस मुलाकात को जी लेने और कैद कर लेने की उनकी सहृदय बेचैनी ने मुझे भाव विभोर कर दिया। ये कैसे अनजाने रिश्ते होते हैं, जिनमें दो लोग अपने आप एक दूजे को चाहने लगते हैं। डाक्टर साहब ड्राइवर को पांच मिनट और रुकने की विनती करते रहे पर ड्राइवर किसी विलने की तरह ना में सिर हिलाकर गाड़ी बढ़ाने लगा, तब मुझे भी मजबूरन बाय बाय कहते हुए बस में घुसना पड़ा। डाक्टर साहब से पल भर की मुलाकात ढेर सारी यादें दे गईं। उनसे फिर मिलने का वादा है। मुंबई पहुंचा तो सीधे अपने अड्डे डाक्टर रूपेश के यहां पहुंचा। डाक्टर साहब ने अपनी फोटो तो कभी भड़ास या इधर उधर डाली नहीं सो उनकी शक्ल को लेकर मैंने ढेरों कल्पनाएं कर रखी थीं। पर वो तो निकले बेहद हैंडसम नौजवान। गठीला और योगीला शरीर। इलाके के यंग एंग्री मैन। कोई बार-वार नहीं चलना चाहिए। विकास की किसी योजना में कोई धांधली नहीं होनी चाहिए। ढेरों सच्चे पंगे ले रखे हैं डाक्टर साहब ने अपने इलाके में। पनवेल में उनके आवास पर रुका तो डाक्टर साहब के मुंबई भड़ासी ब्रांच के सारे कुनबे से मुलाकात हुई। बच्चों सी मुनव्वर आपा, कोमल हृदय और सुंदर व्यक्तित्व की स्वामिनी मनीषा दीदी, अनुभवों और सोच के धनी रूपेश जी के बड़े भाई भूपेश जी....। डाक्टर रुपेश के साथ ही मुंबई को छान मारा। वो भी लोकल ट्रेन के भीड़ भरे डिब्बे में नहीं बल्कि लोकल ट्रेन को चलाने वाले ड्राइवरों की केबिन में ससम्मान बैठकर। इसे कहते हैं डाक्टर रुपेश का जलवा। ड्राइवरों से डाक्टर साहब यूं मराठी में बतियाते कि जैसे कभी प्रतापगढ़ में पैदा ही नहीं हुए हों बल्कि जन्मना मराठियन महाराष्ट्रियन हों। डाक्टर रुपेश के साथ ही दो वरिष्ठ ब्लागरों लोकमंच वाले शशि सिंह और बतंगड़ वाले हर्षवर्धन से मुलाकात हुई। साथ में अपने आफिस के वरिष्ठ साथी रंजन श्रीवास्तव जी भी थे। लोवर परेल के कैफे काफी डे में हाट डाग रोल खाते और लेमन डेमन पीते हुए इहां से उहां तक खूब बतियाया गया। शशि सिंह आजकल वोडाफोन में मैनजेर हैं। मैं इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि चिरकुट माइंडसेट वाले पत्रकार जान लें कि हिंदी पत्रकार अब नाकाबिल नहीं रहा बल्कि वो अपनी काबिलियत सिर्फ कलम की कथित मजबूरी के जरिए नहीं बल्कि बिजनेस और मार्केटिंग जैसे आधुनिक दुनिया के रहस्यों को सुलझाने के जरिए कर रहा है। शशि सिंह हमेशा से मेरे लिए एक समझने वाली चीज रहे हैं, उत्साह से लबालब व्यक्तित्व ऊर्जा से भरी सोच, इंटरप्रेन्योर माइंडसेट का मालिक, कुछ अलग करने रचने जीने सीखने को हमेशा तत्पर रहने वाला युवा......। शशि सिंह से ये मेरी दूसरी मुलाकात थी और हर्षवर्धन जी से पहली। हर्षवर्धन जी के बारे में मेरी सोच ये थी कि वो दिल्ली में ही किसी न्यूज चैनल में कार्यरत हैं पर वो निकले मुंबइया। इन दोनों पूरबिहों से मिलने बतियाने के बाद अगले दिन एक भयंकर वाली ब्लागर मीट हुई। छात्र संगठन पीएसओ उर्फ आइसा के पुराने धुरंधरों दिग्गजों जिन्होंने अपने जमाने में संस्कृति से लेकर राजनीति तक को नए सिरे से समझने समझाने को क्रम को बखूबी अंजाम दिया था, अब मुंबई के भिन्न कोनों में रहते जीते लिखते सोचते हैं। इन सभी से एक साथ मुलाकात हो जाए, मैंने सोचा भी न था। इसके पीछे धारणा बस यही थी कि हम लंठ भड़ास वाले, कच्ची उम्र व सोच वाले, इन धुरंधरों के पासंग भी फिट नहीं बैठते तो ये लिफ्त क्यों मारेंगे। पर मेरी सोच मनगढ़ंत साबित हुई। वरिष्ट ब्लागर प्रमोद सिंह ने अभय तिवारी जी के घर मुलाकात तय कर दी तो मैंने लगे हाथ ढेर सारे परिचितों को वहां पहुंचने के लिए न्योत दिया। स्क्रिट राइटर सुमित अरोड़ा, डा. रुपेश और मैं तो उधर से अभय तिवारी जी, प्रमोद सिंह, अनिल रघुराज, बोधिसत्व, उदय यादव आदि थे। तीन बजे से बतकही शुरू हुई तो जाने कब पांच छह बज गया, पता ही नहीं चला। इतनी बड़ी मुंबई में एक जगह इतने सारे ब्लागरों और साथियों का इकट्ठा हो जाना मेरे लिए सपने सरीखा था। जीवन, दर्शन, हिंदी पट्टी, सोच, संवेदना, ब्लागिंग, एग्रीगेटर, निजी, सार्वजनिक, विवाद, मौलिकता, लेखन, व्यक्तित्तव, पहचान, हरामीपन...जैसे ढेरों विषयों से टकराते बूझते आखिर में भड़ास पर चर्चा ठहरी। साथी लोगों ने लतियाया, धोया, सिखाया, समझाया तो मैंने भी अपनी पेले रखी और उनकी सुनने समझने की मुद्रा बनाए रखी। इन लोगों की ढेर सारी बातों को मैं अमल करने लायक मानता हूं और इस पर कोशिश पहले ही शुरू कर दी गई है, आगे और भी कोशिशें होंगी। और हां, ये बता दूं कि मुंबई के इन सभी लोगों से मेरी पहली मुलाकात थी, सिवाय सुमित अरोड़ा के जो मेरठ से मेरे साथी रहे हैं। प्रमोद सिंह की क्या पर्सनाल्टी है भाई, यूं बड़ी बड़ी मूंछें, गब्बर सिंह माफिक, भर पूरा चेहरा, ठाकुर माफिक, देह पर कुर्ता पाजामा क्रांतिकारियों की माफिक....जय हो....:)। जब आप प्रमोद सिंह के लिखे को पढ़ेंगे तो दूसरी ही तस्वीर उभरती है जिसे लेकर मैं मुंबई पहुंचा था। अभय तिवारी जी, सबसे दुबले पतले, पर सबसे गुस्सैल, क्या क्लास ली भाई ने मेरी, भड़ास और ब्लागवाणी विवाद पर:)। बोधिसत्व जी...अरे बाप रे...छह फुटा आदमी, बिलकुल हष्ट पुष्ट जैसे राष्ट्रपति के प्रधान अंगरक्षक, जैसे सीमा सुरक्षा बल के कमांडर, जैसे दुष्टों के दलन को आए महामानव....कहीं से कवि नहीं नजर आए:)। अनिल रघुराज जी, सकुचाए, चुप्पा, विनम्र, सहज.....बोलेंगे तो धारधार वरना चुप रहेंगे:) और इन सभी की खबर ली डाक्टर रुपेश ने, नाड़ी नब्ज टटोलकर:) किसी की वात उठी हुई थी तो किसी की पित्त। अब ये भड़ासी डाक्टर और आयुर्वेद का मास्टर डाक्टर रुपेश श्रीवास्तव इन मुंबइया ब्लागरों की नब्ज हमेशा देखता रहेगा ताकि कभी उंच नीच न हो जाए:)उदय यादव जी के साथ मैं पार्टी के दिनों बनारस में काफी कुछ सीखा है, उनसे मिलना बारह पंद्रह साल बाद हो रहा था पर उदय भाई के व्यक्तित्व में कोई खास बदलाव नहीं। वही गठीला शरीर, वही मुस्कान, वही सहजता।पहली रात डाक्टर रुपेश के पनवेल वाले घर में गुजारी तो दूसरी रात सुमित अरोड़ा के यहां, लोखंडवाला इलाके में। डाक्टर रुपेश के यहां मनीषा दीदी ने बड़े प्यार से मछली पकाई थी। चूंकि डाक्टर साहब खुद शुद्ध शाकाहारी और मांस मदिरा से दूर रहने वाले प्राणी हैं तो मछली पकाने का उपक्रम मनीषा दीदी ने मुनव्वर सुल्ताना आपा के घर पर किया। दूसरी रात सुमित अरोड़ा के यहां पहूंचा तो भाई ने पृथ्वी थिएटर में लगातार बीमार नामक (अगर नाम न भूल रहा हूं तो) नाटक के शो के टिकट बुक करा लिए थे। इसी दौरान अजय ब्रह्मात्मज जी का फोन आ गया। यहां मैं बता दूं कि अभय तिवारी जी के यहां आने के लिए मैंने वमल वर्मा जी, आशीष महर्षि जी, अजय ब्रह्मात्मज जी को भी संदेश भेजा था पर ये तीनों अपनी व्यस्तताओं की वजह से समय नहीं निकाल पाए। तीनों ही लोगों के फोन या एसएमएस आए कि वे कोशिश करके भी उस टाइम पर उस जगह पहुंच नहीं पा रहे। तो अजय जी के फोन आने पर बात हुई तो पता चला कि सुमित के घर के ठीक सामने पत्थर मारने भर की दूरी पर (शब्द साभार अजय ब्रह्मात्मज) ही अजय जी का भी घर है। और जब मैं बीयर गटकने के बाद सुमित के बाथरूम से नहाधोकर निकला तो सामने अजय जी को सुमित व उनके दोस्तों से बतियाता पाया। धन्य हो मुंबई वालों का प्रेम। अजय जी से जानकारी मिली की वही नाटक देखने विभा भाभी जी भी जा रही है। अगली सुबह नाश्ते पर अजय जी के घर आने का वादा कर मैं सुमित के साथ नाटक देखने निकल गया। इंटरवल में विभा जी ने खुद ही पकड़ लिया, आप यशवंत जी हैं ना....। मैंने मसाला मुंह में घुलासा हुआ था और एक अपिरिचित जगह पर एकदम से किसी महिला के इस तरह मुझे पहचान लेने से एकदम अकबकाया मैं वो पूरा मसाला गटक गया और फिर तुंरत बोल पड़ा...जी मैं ही हूं। तब भाभी जी ने बताया कि वो विभा हैं और अजय जी ने उन्हें मेरी हुलिया फोन पर बता दी थी। और साहब, मालूम है, कपड़ा कौन पहना था, हरे राम हरे कृष्णा वाला कुरता जो ऋषिकेश में घूमने के दौरान खरीदा था। सो, उस दर्शक वर्ग में एकमात्र मैं आदमी थी जो एकदम से हरा हरा नजर आ रहा था। अगली सुबह देर से नींद खुली और देर से अजय जी के घर पहुंचे। तोसी कोसी का नाम ब्लागिंग के जरिए मेरी जुबान पर पहले से ही था। तोषी तो लाहौर में हैं, कोसी एकदिन पहले ही हाईस्कूल की परीक्षा देकर आजाद पंछी की माफिक मुस्करा रही थीं। विभा भाभी को प्रमोशन मिला था और उनका बर्थ डे भी था, अजय जी को पुरस्कार लेने का दिन भी वही थी, एक साथ एक ही दिन ढेर सारी खुशियां जश्न उत्सव मनाने का मौका....। ईश्वर ये खुशी बनाए रखे, सबको दे, इसी तरह। गरम गरम पूड़ियां और छोला और सब्जी और चटनी और पापड़ और .....। गले तक नाश्ता किया बोले तो पूरा भोजन ही कर लिया। इस चार दिनी यात्रा का वृतांत कमोबेश यही है। आशीष महर्षि ने संदेश भेजा कि मिलने के लिए समय न निकाल पाने के लिए वे माफी चाहते हैं.......अरे भाया, इसमें क्षमा जैसी क्या बात आ गई यार, जिंदी रहे तो जरूर मिलेंगे भाया, दिल तो अपन लोग का मिला ही हुआ है, फिजिकल डिस्टेंस का आज के युग में कोई मतलब नहीं है। तो डाक्टर रूपेश जी, मैंने यात्रा की समरी रख दी। कई चीजें छूट गई होंगी, कई नाम भूल गए होंगे, कई प्रसंग अनुल्लिखत होंगे.....प्लीज....उन कड़ियों को आप जोड़ दीजिएगा, एक नई पोस्ट डालकर। अंत में, आप सभी हिंदी ब्लागर दोस्तों को, जो भारत से लेकर दुनिया भर के देशों में फैले हुए हैं, दिल से आभार के कहना चाहूंगा कि आप और हम अलग अलग होकर भी जब मिलते हैं तो यूं परिचित लगते हैं जैसे कभी अपिरचय था ही नहीं। मैं इस पूरे घटनाक्रम से अभिभूत हूं। मुंबई जाने की सोचकर कभी फटा करती थी, वहां कौन है तेरा.....बर्तन माजना होगा, धक्के खाना होगा, कुचलकर मर जाएगा.....टाइप की बातें बताई जाती थीं। और जब पहली बार मुंबई गया तो लगा ही नहीं ये शहर दिल्ली से अलग है, परिचय के मामले में, जीने के मामले में, सहजता के मामले में, रिश्तों के मामले में...। और ये सब है हिंदी ब्लागिंग की बदौलत। मा बदौलत, यह दस्तूर कायम रहे.....।जय भड़ासयशवंत Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 2 comments Labels: , , , , , ,

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