Sunday, November 4, 2007

दीपावली पर प्रोफेसर अश्विनी केशरवानी की सोच

दीपावली का आगमन खुशियों के साथ साथ अनेक प्रकार की समस्याओं के साथ होता है। बढ़ती महंगाई और आर्थिक बोझ से दबे होने के कारण मध्यम तथा निम्न वर्गीय परिवारों के लिए यह त्योहार कई महीने के बजट को छिन्न भिन्न करने वाला होता है। तब मजबूरन कहना पड़ता है-'' दिवाला निकालने आयी दीवाली '' दीपावली हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार होता है, इसे तो मनाना ही है और जब इसे मनाना ही है तो महंगाई से बचकर क्यों न इसे सादगी पूर्वक मनाएं ? किसी धन्ना सेठ की तरह फिजूल खर्ची न करके जहां आवश्यक हो वहीं खर्च की जाए। रही बात लक्ष्मी जी के आगमन की, तो उन्हें आप अपनी सादगी से भी रिझा सकते हैं। लक्ष्मी जी किसी सेठ-महाजन के घर साफ सफाई के कारण प्रवेश करती हैं मगर वहां आपसी कलह के कारण सुख कम दुख ज्यादा होता है। लेकिन इससे आप न घबरायें, आपके घर भी लक्ष्मीं जी पधारेंगी। आइये इस महंगाई और दिवाला भरे माहौल में दीवाली सादगी से मनाने के बारे में विचार करें। दीपावली की तैयारी एक महीने पूर्व से शुरू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे इसका ही हमें इंतजार था। दीपों के इस पर्व के साथ घरों और दुकानों की साफ सफाई और रंग रोगन भी हो जाता है। साफ सफाई से जहां साल भर से जमते आ रहे कचरा और गंदगी की सफाई हो जाती है और ख्याल से उतरे कुछ जरूरी सामान और कागजात की छंटाई सफाई हो जाती है। व्यापारी वर्ग के लिए तो यह नये वर्ष की शुरूवात होती है। पुराने हिसाब किताब बराबर करना और नये खाता बही की शुरूवात जैसे लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। रंग रोगन से जहां मकानों और दुकानों की शोभा बढ़ जाती है, वहीं टूटे फूटे मकानों, दीवारों और सामानों की मरम्मत आदि हो जाती है। मान्यता भी यही है कि साफ सुथरे जगहों में लक्ष्मी जी का वास होता है और संभवत: लोगों का यह प्रयास लक्ष्मी जी को बहलाने फुसलाने का माध्यम भी होता है। इससे एक ओर तो धन्ना सेठों के घर चमकने लगते हैं वहीं दाने दाने को मोहताज लोग एक दीप भी नहीं जला पाते....तभी तो कवि श्री सरयूप्रसाद त्रिपाठी 'मधुकर' कहते हैं :- धनिकों के गृह सज स्वच्छ हुये, दीनों ने आंसू से पोंछा। माता का आंचल पकड़ बाल मिष्ठान हेतु रह रह रोता। लक्ष्मी पूजा की बारी है पर पास न पान सुपारी है। कार्तिक अमावस्या को मनाये जाने वाले इस त्योहार के प्रति पुराने जमाने में जो खुशी और उत्साह होता था उसका आज पूर्णत: अभाव देखा जा सकता है। आज दीवाली के प्रति लोगों की खुशियां कृत्रिम और क्षणिक होती है। जबकि पुराने समय में दीवाली के आगमन की तैयारी एक माह पहले से शुरू हो जाती थी। इस दिन सबके चेहरे पर रौनक होती थी। सभी आपसी भेद भाव को भूलकर एकता के सूत्र में बंध जाया करते थे। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छूत-अछूत जैसा भेद नहीं होता था बल्कि आपसी समझ-बूझ से लोग यह त्योहार मनाया करते थे। पर्व और त्योहारों का संबंध आजकल मन से कम और धन से ज्यादा होता है। सम्पन्नता विशेष आयोजनों और त्योहारों को विभाजित कर देती है, विपन्नता तो महज जीवन को जिंदा रखती है और मरने भी नहीं देती। देखिये कवि मधुकर जी की एक बानगी :- चिंता विस्मृत हो गयी दुखद उत्साह अमित उर में छाया। धन दल विहीन नव नील गगन विस्मृत अतिशय मन को भाया। विहंसी निशि में तारावलियां जब जुगनूं की जमात चमकी। कुछ सहमे अचानक आ गयी यह अलस अमा रजनी काली। दीपों का यह त्योहार खुशी, आनंद और भाईचारा का प्रतीक माना जाता है पर बदलते परिवेश में इसकी परिभाषा फिजूलखर्ची और दिखावे ने ले लिया है। इससे मध्यम वर्गीय परिवारों का आर्थिक ढांचा बहुत हद तक चरमरा जाता है। हमारे समाज में उच्च-मध्यम और निम्न वर्गीय लोग रहते हैं। उच्च वर्ग का फिजूलखर्ची और भोंडा प्रदर्शन मध्यम और निम्न वर्गीय लोगों को बरगलाने के लिये काफी होता है। कुछ लोग तो इन्हें हेय समझने लगे हैं। निम्न वर्ग तो हमेशा यही समझता है कि अमीरों के लिये ही सभी त्योहार होते हैं। सबसे ज्यादा आर्थिक और सामाजिक बोझ मध्यम वर्गीय परिवारों के उपर ही पड़ता है। उनकी स्थिति सांप और छछूंदर जैसी होती है। वे त्योहारों को न तो छोड़ सकती है न ही उनसे जुड़ सकती है। मेरा अपना अनुभव है कि कुछ लोग इस कोशिश में रहते हैं कि अपनी दीवाली सबसे ज्यादा रंगीन और आकर्षक हो। इसके लिये वे अधिक खर्च करना अपनी शान समझते हैं। अपनी शान और अभियान को बनाये रखने तथा पड़ोसियों के उपर अपना रोब जमाने का यह प्रयास मात्र होता है। इससे न उसके शान और मान में बढ़ोतरी होती है, न ही लोग उनसे जुड़ पाते हैं। सामाजिक जुड़ाव के लिये आर्थिक सम्पन्नता का भोंडा प्रदर्शन के बजाय व्यावहारिक होकर सादगी से इस पर्व को मनाना उचित होगा। यह सच है कि दीपावली के आगमन से खर्च में बढ़ोतरी हो जाती है और पांच दिन तक मनाये जाने वाले इस त्योहार के कारण आपका पांच माह का बजट फेल हो जाता है। उचित तो यही होगा कि आप इसे अपने बजट के अनुसार ही मनायें। हर वर्ष आने वाला दीपावली अपने चक्र के अनुसार इस वर्ष भी आया है और भविष्य में भी आयेगा पर इससे घबरायें नहीं और सादगी पूर्ण सौहार्द्र वातावरण में मनायें। दूर दर्शिता से काम लें, इतनी फिजूलखर्ची न करें कि आपका दीवाला ही निकल जाये और न ही इतनी कंजूसी करें कि दीवाली का आनंद ही न मिल पाये..। कवि का भाव भी यही है :- हे दीप मालिके ! फैला दो आलोक तिमिर सब हट जावे। जल जावे भ्रष्टाचार-शलभ दुख की बदली भी छंट जावे रोगों से कोई ग्रसित न हो जठरानल से भी त्रसित न हो अनुभव करने सब लोग लगे हमने स्वतंत्रता है पा ली नवज्योति जगाने जीवन में आयी यह जगमग दीवाली --------------------- रचना, लेखन एवं प्रस्तुति, प्रो. अश्विनी केशरवानी राघव डागा कालोनी, चांपा-495671 ( छत्तीसगढ़ )