Tuesday, January 15, 2008

ब्लोग विधा और २००७ की यात्रा पर संजय तिवारी की प्रतिक्रिया

साल 2007 हिन्दी ब्लागिंग के लिहाज से बहुत महत्व का था फिर भी ऐसा कुछ नहीं हुआ है जिसे उपलब्धि मानकर समीक्षा की जाए. कुछ घटनाएं जरूर हुई हैं जिनका आगामी सालों में हिन्दी की इस नयी विधा पर बहुत अच्छा असर पड़ेगा. संवाद तो हुआ ही विवाद भी खूब हुए. ब्लागरों की सक्रियता देखिए कि किसी पोस्ट या ब्लाग पर कुछ लिखा गया तो उस पर इस तरह से प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी मानों देश में दूसरा कोई मुद्दा है ही नहीं. साल की शुरूआत में कुल जमा 100-125 हिन्दी ब्लागरों का समूह साल के अंत तक हजार का आंकड़ा पार गया. यानी 10 गुने से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई. इसी अनुपात में ब्लागों के पाठक भी बढ़े हैं. एक-दूसरे के ब्लाग पढ़कर वाहवाही और निंदा का दौर पीछे छूट गया है. अब कम ही सही मुद्दे की बात पर बहस होती है. कई सारे लिक्खाड़ पत्रकार नियमित रूप से ब्लाग लिखने लगे हैं. लेकिन सबसे सुखद पहलू है बड़ी संख्या में पत्रकारिता के नवागंतुक और पढ़ाई करनेवाले युवकों द्वारा ब्लाग लिखना. आज जितने लोग नियमित ब्लाग लिख रहे हैं उनमें अधिकांश लिखने-पढ़ने के पेशे से जुड़े हुए हैं. उन्होंने ब्लाग को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया है और वे सफल हैं क्योंकि आखिरकार बेबाक राय की अहमियत तो होती है. हिन्दी ब्लागिंग की कई सारी खासियतें हैं जो बाकी हिन्दी समाज से इसे अलग करती है. यहां एक अघोषित सह-अस्तित्व है. हो सकता है बौद्धिक लोगों की भीड़ बढ़ने से इसमें थोड़ी कमी आये लेकिन शुरूआती दौर के ब्लागरों की आलोचना करें कि वे परिवारवाद की शैली में ब्लाग चला रहे थे तो यह उनकी खूबी भी थी. मसलन जिस तकनीकि के बारे में बहुत सारे डेवलपर भी नहीं जानते हिन्दी ब्लागर उसका धड़ल्ले से उपयोग करते हैं. देखने में यह बात भले ही छोटी लगती हो लेकिन है बहुत महत्वपूर्ण. क्योंकि इंटरनेट पर सक्रियता के लिए आखिरकार आपको तकनीकिरूप से समृद्ध होना ही पड़ता है. यह शुरूआती ब्लागरों का बड़प्पन है कि उन्होंने हिन्दी प्रेम के वशीभूत नवागन्तुकों को वह सब जानकारी उपलब्ध करवाई जिसके बारे में अच्छे-खासे वेब डिजाईनर और डेवलपर भी नहीं जानते. यहां सब कुछ मुफ्त है और आपके लिए सहज उपलब्ध है. इसका परिणाम यह हुआ है कि आमतौर पर तकनीकि पृष्ठभूमि से न जुड़े होने के बावजूद हिन्दी ब्लागरों को तकनीकि के कारण कभी मन मारकर नहीं बैठना पड़ा. कारंवा निरंतर बढ़ रहा है, और यह सब उन शुरूआती ब्लागरों का बड़प्पन है जिन्होंने कहीं से व्यावसायिक मानसिकता नहीं अपनाई. इसी का परिणाम है कि ब्लाग की दुनिया में व्यावसायिक मानसिकता को कहीं कोई जगह नहीं है. इसको और सरलता से समझना हो तो देख सकते हैं कि दो एग्रीगेटर गैर व्यावसायिक मानसिकता से शुरू किये गये और दो व्यावसायिक दृष्टिकोण से. एग्रीगेटर ही वह माध्यम होता है जहां जाने के बाद आप हिन्दी के अधिकांश चिट्ठों तक आसानी से पहुंच सकते हैं. वनइंडिया और ब्लाग अड्डा दो व्यावसायिक एग्रीगेटर आये और उनको ब्लागरों ने कोई महत्व नहीं दिया. लेकिन चिट्ठाजगत और ब्लागवाणी नाम के एग्रीगेटर साल में मध्य में ब्लागरों के बीच आते हैं और देखते ही देखते हिन्दी ब्लाग्स के सबसे सशक्त माध्यम बन जाते हैं. आज अधिकांश हिन्दी चिट्ठे इन दो एग्रीगेटरों पर ही रजिस्टर्ड हैं. पहले से चले आ रहे दो एग्रीगेटर नारद और हिन्दी ब्लाग्स भी एग्रीगेटर के रूप में यथावत सक्रिय हैं. यह गैर-व्यावसायिक शुरूआत का नैतिक दबाव ही है कि हिन्दी ब्लागिंग में एग्रीगेटर किसी प्रकार का कामर्शियल स्वरूप नहीं अख्तियार कर पा रहे हैं. हिन्दी भाषा के सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को देखते हुए सेवा का यह तरीका निसंदेह स्वागतयोग्य है. हमें उन गिने-चुने लोगों का धन्यवाद करना ही चाहिए जिन्होने हिन्दी ब्लागिंग को व्यवसाय के नजरिए से नहीं देखा. इस साल कई विवाद हुए. लेकिन हर विवाद से कुछ न कुछ सार्थक ही निकलकर आया जो आखिरकार हिन्दी ब्लागरी को मदद कर रहा है. मसलन साल की शुरूआत में कैफे हिन्दी चलानेवाले मैथिली गुप्त ने कुछ ब्लागरों के लिखे को अपने यहां प्रकाशित किया और दावा किया कि ऐसा करने से पहले उन्होंने ब्लागरों से अनुमति ले ली थी. लेकिन विवाद हो गया. इस विवाद का परिणाम यह हुआ कि मैथिली गुप्त ने ब्लागवाणी नाम से अपना खुद का एग्रीगेटर शुरू कर दिया. इसी तरह विपुल जैन और आलोक कुमार ने भी मिलकर चिट्ठाजगत नाम से एक एग्रीगेटर शुरू किया. सालभर हिन्दी ब्लागरों ने कभी जाति व्यवस्था पर बहस की तो कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित राष्ट्रगान की उस पंक्ति पर की भारत का भाग्यविधाता कौन है? ऐसी अनगिनत बहसों से हिन्दी ब्लागर आनेवाले लोगों के लिए एक अघोषित गाईडलाईन बनाते जा रहे हैं जिसका परिणाम तो होगा ही. आप कह सकते हैं कि एक अरब लोगों के देश में तीन-पांच हजार लोगों के समूह की सक्रियता पर इतनी बढ़-चढ़कर बात करना क्या ज्यादती नहीं है? हां ज्यादती होती अगर यह समूह इंटरनेट पर ब्लागरों का न होता. हम ब्लाग्स पर इतनी बात कर रहे हैं इसीमें इसकी संभावनाओं का सूत्र छिपा हुआ है. यह वो पगडंडी है जो जल्दी ही सुपर एक्सप्रेसवे में बदलने जा रही है. ब्लागों के कारण हिन्दी की मानसिकता में बड़ा परिवर्तन होने जा रहा है, थोड़े ही दिनों में इसके उदाहरण दिखने लगेंगे. आज तक वैकल्पिक मीडिया के नाम पर जो बहस होती रही है, ब्लाग्स के रूप में उस वैकल्पिक मीडिया का आगाज हो चुका है. यह ब्लाग समीक्षा समकाल, वर्षः1, अंकः19. विदा 2007 अंक में प्रकाशित हुई है. Posted by संजय तिवारी 11:00 AM 9 comments Links to this post