Saturday, January 26, 2008

ए हमार छब्बीस जनवरी

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाओं के बीच कुछ प्रश्न कुलबुला रहे हैं जिसका जबाब वर्षों से तलाशने की कोशिश जारी है। लेकिन न तो जबाब मिल पाया है और न ही कोई नया प्रयास दीखता है वही विपन्नता,वही हाथों में कटोरे, पेट भरने की आस में सत्ता के झंडे लेकर हांफने वाला यह वर्ग कब हकीकत से रू-बरू हो पायगा ,कब जागेगा आत्मविश्वास, यह इस्तेमाल करने वाले हरामिओं को कब उसकी औकात बताय्गा । वैशाली और लिछ्छ्वी के गणतंत्र के धरोहर से सम्पन्न इसकी वर्त्तमान हाल पर आंसू बहाने की ज़रूरत नही बल्कि परिवर्तन के शंखनाद की ज़रूरत है। गणतंत्र दिवस पर टीवी पर पैरेड देखने के बाद ब्लोग में कुछ खास तलाशने बैठा तो संयोग से आप पाठकों के लिए एक सुन्दर उपहार मिल गया,सोचा परोस ही दूँ। ''भोजपुरिया'' नाम से एक ब्लोग्साईट अभी चर्चा में आया ही है,भोजपुरी भाषा की लोकप्रियता के कारण लोग इसे पढ़ भी रहे हैं ,उसी पर यह कविता थी ,एक नज़र ज़रूर डालिए:- ए हमार छब्बीस जनवरी आइ गइलू न, फिर अटकत-मटकत...ए हमार छब्बीस जनवरीअबहिन बाकी बा कुछ अउरी?त आवा तनी गोरख बाबू के सुर में इहो कुल सुनले जा कि तोहके चूमे-चाटे वाले, सलूट मारै वाले का-का करत हउवैं....रउरा सासना के बाटे ना जवाब भाई जीरउरा कुरसी से झरेला गुलाब भाई जीरउरा भोंभा लेके सगरो आवाज करीलाहमरा मुंहवा में लागल बाटे जाब भाई जीरउरे बुढिया के गलवा में क्रीम लागेलाहमरी नइकी के जरि गइलें भाग भाई जीरउरे लरिका त पढ़ेला बिलाइत जाइ केहमरे लरिका के जुरे ना किताब भाई जीहमरे लरिका के रोटिया पर नून नइखेंरउरा चापीं रोज मुरगा-कबाब भाई जीरउरे अंगुरी पर पुलिस आउर थाना नाचे लाहमरे मुअले के होखे न हिसाब भाई जी। प्रस्तुतकर्ता भोजवानी पर 3:19 AM